“मैं किन्नी वार दारजी नू कलकत्ते ना जान लई बिनती कित्ती सी। उधर मज़हबी हालत ठीक नहीं हैं। अब क्या हुआ?”
जोगिंदर की आवाज़ रसोई की दहलीज़ तक गूंज रही थी जहाँ थाली में रखी रोटी अब ठंडी हो चुकी थी।
“रहीम चाचा, तुसी किरपा करके ओह्नानू समझाओ। खाना-पीना वी छड्ड दिता है। बुआ के पास गए सी, पर उनके बारे में कुछ दस्दे ही नहीं। बस एक गंदी सी फुलकारी लेकर बैठे हैं।”
फुलकारी सुनकर दारजी – करतार सिंह, ने एक बार नज़र ऊपर उठाई फिर शून्य में खो गए। दारजी अब सत्तर के आसपास रहे होंगे। उम्र के साथ झुर्रियों से भरा हुआ साँवला चेहरा, वर्षों की मेहनत से उभरी हुई हाथों की नसें, और भूरी आँखें, जिनमें कई मौसम कैद थे। सिर पर एक नीली पगड़ी थी, जिसे उन्होंने कलकत्ता से लौटने के बाद से ही नहीं बदला था। हाथों में थी एक पुरानी फुलकारी, जिसके रंग अब धुंधले पड़ चुके थे। उन्हीं रंगों में कहीं बीते ज़माने की कहानियाँ, रिश्तों की मिठास, और अपनों की याद छुपी हुई थी।
“तुहानू पता है डॉक्टर ने क्या कहा है? जे तुसी इस तरह अपने आप नू रखोगे तां…”
कुछ कहते-कहते जोगिंदर रुक गया। उसका क्रोध चिंता में परिवर्तित हो चुका था।
“तु जा पुत्तर। मैं तेरे नाल गल करांगा।” रहीम चाचा ने जोरावर का कंधा थपथपाते हुए भीतर जाने का इशारा किया।
दिल के ज़ख़्म कभी-कभी शब्दों से बयाँ नहीं हो पाते हैं। लेकिन मौन… मौन बहुत कुछ कहता है। इस मौन में ही वो सवाल पलते हैं, जिनके जवाब जीवन की उधेड़बुन में उलझे होते हैं। इस खामोशी से उपजी पीड़ा कभी आँखों के कोरों से रिसती है तो कभी घुटन बन कर सीने पर बोझ डालती है।
दार जी अब भी उसी जगह बैठे थे। पथराई हुई आँखों से फुलकारी की एक कोर को निहारते हुए इतिहास की सुरंग में उतर गए… और सामने था एक आँगन। नन्हा सा करतार मिट्टी में लोटपोट हो रहा था। बिखरे हुए बाल, मैले कपड़े, और मुँह पर हल्की सी मुस्कान। बगल में थी उसकी बड़ी बहन, जो अभी-अभी कॉलेज से लौटी थी। हाथ में थी एक पुरानी कॉपी, जिसमें उसने करतार को ‘सत श्री अकाल’ लिखना सिखाया। बीबी (पंजाबी में दीदी) का नाम था पियारो कौर, लेकिन मुहल्ले के सारे बच्चों में बड़े होने के कारण सभी उन्हें ‘बीबी’ ही कहते थे।
“तू वड्डा अफसर बनेगा इक दिन, काके।” बीबी छोटे भाई को कहतीं।
“मैंनू तां सिर्फ बैलगाड़ी चलानी पसंद है।” करतार की मासूमियत बाहर आ गई।
बीबी हँसी, फिर प्यार से उसके माथे पर एक थपकी दी.
“बुद्धू! फिर तू सब से पढ़ा-लिखा ड्राइवर बन जायेगा…”
यादों के सफ़र में कोई विराम नहीं लगा। बालक करतार कीकर के पेड़ पर झूला झूलता, कभी गन्ने चूसता, तो सर्दियों की आग में आलू पका कर खाता। स्कूल की चहारदीवारी फांद कर अनगिनत बार भाग आता और भरी दोपहरी बच्चों के साथ गुल्ली-दंडा खेलता। कई बार खेल-खेल में बिन बात का झगड़ा करता और फिर बीबी आकर उसे हर मुसीबत से बचा लेतीं।
और फिर… जैसे आसमान ही फट पड़ा। खबर आई की काल बनकर प्लेग की महामारी आई है जिससे सारा इलाक़ा सिहर उठा। करतार की माँ को पहले तेज़ बुख़ार आया जिस पर वैद्य जी की दवाइयों का कोई असर ना हुआ। बुख़ार ज़ोर पकड़ता गया। पिता जी माँ को बैलगाड़ी पर बैठाकर शहर के सरकारी बँगले की ओर ले गए, जहाँ अंग्रेज़ों का बनवाया एक नया अस्पताल था। उधर पिता जी को भी खाँसी आने लगी। दोनों को दूर, अलग-अलग कमरों में रखा गया। बच्चों से मिलने की मनाही थी। बीबी दरवाज़े पर खड़ी रही, पर माँ की परछाईं तक न देख सकी। घर आया तो एक सरकारी परवाना।
“सरकार का हुक्म है, बीमारी फैल रही है, लाशें हम उठाएंगे। घर वाले दूर रहें।”
बीबी सारी रात रोती रही। फिर सुबह उठी, बाल कसकर बाँधे, और माँ की ओढ़नी ओढ़ रसोई में जा खड़ी हुई। करतार – एक अनाथ बच्चा अब बहन की गोद में जीवन ढूँढने लगा। बीबी ने किताबें छोड़ सिलाई-कढ़ाई सीख ली क्योंकि अब उसे अपने छोटे भाई के लिए एक नया भविष्य सिलना था। करतार के लिए वो सिर्फ़ बहन नहीं थीं, माँ का पुनर्जन्म थीं – ममता, संस्कार, और अनुशासन की जीती-जागती मूर्ति।
उस ज़माने का कलकत्ता एक जिंदादिल शहर था जो औद्योगिक क्रांति की राह पर था। वहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के शिपयार्ड में कार्यरत, मेहर सिंह से बीबी की शादी हो गई। पर उसे तो हमेशा छोटे भाई की फिक्र सताती। उसकी इस चिंता का हल हो गया जब रात को जीजा जी ने कहा था, “प्यारेयो, इथे तेरा प्रा अकेला महसूस करेगा। तुझे छोड़ कहाँ रहेगा? इसनू साथ लै चलिए। परिवार को कभी बाँटा नहीं जाता, वह तो हमेशा एकसाथ ही रहता है।” बीबी की आँखें नम हो गईं थीं।
बस क्या था, करतार एक पुरानी पोटली में कुछ कपड़े और किताबें बाँधकर कलकत्ते के सफर पर निकल पड़ा। रास्ते भर आँखें खुली थीं – कभी खिड़की से खेतों को देखता, कभी पुल पार करते समय नदी की झलक को।
जीजा जी की कोठी भवानीपुर में थी। दो मंजिला मकान, ऊपर की बालकनी में हरे रंग की लकड़ी की रेलिंग, और दरवाज़े पर पीतल की पुरानी घंटी। घर के सामने एक छोटा-सा बग़ीचा था जहाँ हरसिंगार के फूल रात भर झरते, और सुबह ओस से भीगे हुए आँगन को सुगंधित कर जाते। बीबी हर सुबह झाड़ू लगाते समय पहले उन फूलों को चुनतीं, फिर तुलसी के गमले के पास रख देतीं। वहाँ की संकरी गलियाँ, हाथगाड़ी वालों की आवाज़ें, ट्राम की घंटियाँ, और मिठाई की दुकानों से फैलती खुशबू, इन सबके लिए बेहद नया था। बीबी कलकत्ता आई तो थीं एक पंजाबी गृहिणी बनकर, पर पड़ोस की महिला, जिसे वह ‘बोउदी’ कहती थीं, से बांग्ला सीखने लगी। रवींद्र-संगीत की मीठी धुनें जब भी सुनने को मिलती तो वह सिलाई की टिक-टिक छोड़ आँखें मूँद लेतीं। उनकी सबसे प्रिय रचना थी – ‘जदी तोर डाक सुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे…’
“रविंदर बाबू दी कविता विच बेबे दा अहसास है, काके,” वे करतार से कहतीं, “जे तू सु्णेंगा, तां तैनूं वी बेबे दी याद आ जावेगी।”
वे टैगोर की कहानियाँ पढ़ती थीं – ‘काबुली वाला’, दृष्टि दान’, ‘पोस्ट मास्टर’ – और रात को करतार को सुनातीं।
बीबी को फुलकारी बनाने का शौक बचपन से था जिसमें अंकित हर फूल, हर पत्ती किसी स्मृति का प्रतीक था।
“एह बेल तुहाडे जनमदिन दी निशानी है… एह गुलाब उस समय दा है जदो तुसी पहली वारी स्कूल गए सी। अते कोने विच सूरज वरगा जो तुसी देख रहे हो, ओस नूं उस दिन टांका लगिया सी जदो तुसी फुटबॉल मैच विच दो गोल किए थे…”
इस तरह फुलकारी उनके जीवन-गाथा का आईना बन चुकी थी – जहाँ हर रंग, हर टाँका एक कहानी कहता था।
करतार की स्मृतियों का कलकत्ता एक सांस्कृतिक वटवृक्ष, एक अनुभूति था जो इंद्रधनुष की तरह हर मोड़ पर रंग बदलता था। घर में बुल्ले शाह को सुनने वाला करतार स्कूल में माइकल मधुसूदन दत्त और रविन्द्र नाथ ठाकुर की कविता-कहानियाँ सुन कर बड़ा हुआ। उसकी बचपन की यादों में हुगली नदी के तीर पर भोर वाली धुंध, घाटों पर अर्पण स्नान करते लोग, और चाय के मिट्टी के कुल्हड़ मोह लेते थे। बीबी के घर के पास ही ढाक (पूजा में बजने वाला ढोल जैसा एक वाद्य यंत्र) की रिहर्सल होती थी। दुर्गा पूजा आने से पहले ही ढाकियों की आवाज़ गूंजने लगती। करतार तो हर बार यही कहता, “बीबी, जदो ऐह ढाक वजदा है, तां ऐह लगदा है जैसे अपना गाँव खुद ही बोलने लगा हो…”
काली घाट से लेकर बाग बाज़ार की पंडाल सजावट तक, शहर जैसे नवविवाहिता दुल्हन की तरह तैयार हो जाता था। बीबी हमेशा पूजा के पहले दिन दरवाजे पर अल्पना बनाती थीं।
“काके, एह ओह राह होंदा है जिससे होकर हम दुर्गा माँ का स्वागत करते हैं।”
बंगाली बोलने का अंदाज भी करतार में ऐसा उतर गया था वह बचपन में अपना नाम “कोरतार” ही बताया करता था। “बाबा! तोर बांग्ला ऑनेक सुंदर होएछे,” पड़ोस की एक बुढ़िया कहती, और वह शरमा जाता।
ट्राम में बैठ के घूमना, बड़ा बाजार का फुचका खाना, रेस कोर्स में बाहर से हॉर्स राइडिंग देखना, पान्टून ब्रिज पर पैर लटका कर बैठते, हुगली नदी में कंकड़ फेंकना जैसी अनगिनत यादें करतार के अंदर बसी थीं। कभी बेलूर मठ की नाव यात्रा, कभी दक्षिणेश्वर की संध्या आरती, कभी बरसात में कॉलेज स्ट्रीट की गलियों में भींगना – कलकत्ता का हर अनुभव, करतार के बचपन का एक अमूल्य रत्न था। वहाँ की गलियों से जो लगाव उसे हो गया था वो अपनत्व लाहौर में भी नहीं था।
कभी-कभी जीवन हमें उस बदलाव थोप देता है, जिसके लिए हम तैयार नहीं होते हैं।
“सत श्री अकाल, पुत्तर करतार…”
उसके चाचा जी का पत्र आया था। करतार की शादी और पुरखों की विरासत सँभालने के लिए लाहौर से बुलावा आया था। सिलाई मशीन की टिक-टिक को विराम देते हुए बीबी ने आहिस्ता से कहा था “काके, समय आ गया है कि तू अपना घर बसाये। लाहौर जाके वेख… तुहाडा वजूद उठे है। उठे तेरे पिउ दा घर है। वहीं तो हमारे पुरखों की मिट्टी है। साडे लाहौर विच कम करो, उठे तुहाडी ठौर है।”
करतार ने खामोशी से आसमान देखा। कलकत्ता, जहाँ उसने पहली बार किताबें पढ़ीं, पहली बार कविता लिखी, पहली बार किसी दोस्त के लिए झगड़ा किया… जहाँ हर मोड़ पर कोई स्मृति थी, कोई मुस्कान थी, कोई बांग्ला गीत था। कलकत्ता की वह अंतिम शाम … करतार छत पर खड़ा था। शहर की हवाओं में फिर से दुर्गा पूजा की तैयारी की हल्की हलचल थी – ढाकियों की दूर से आती धमक, बच्चों की हँसी की गूँज, और पड़ोस में सिंदूर खेला (विजयादशमी के दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करने का उत्सव) की थालियाँ सज रही थीं। उस रात, करतार ने हावड़ा स्टेशन से एक बार पीछे मुड़कर देखा। उसका शहर जगमगा रहा था। हुगली की लहरों पर बिजली की परछाइयाँ लहरों-सी हिल रही थीं। फिर रेल की सीटी बजी, और कलकत्ता ने धीरे-धीरे ख़ुद को उसकी आत्मा में कैद कर लिया।
लाहौर लौटते ही घर की छतें अलग लगीं, हवाओं में वो पुराना अपनापन था, लेकिन करतार का मन बसने को तैयार नहीं हो रहा था। चाचा जी बोले, “करतार, हुण तूं घर दी जिम्मेदारी संभाल। तेरे पिउ दा नाम तेरे साथ जुड़ा है।”
अब कलकत्ता उसके लिए स्मृति बन चुका था और कर्तव्य सामने खड़ा था। रिश्ते तय होने लगे, एक सादगी भरी शादी हुई, और कुछ वर्षों में घर बच्चों की किलकारियों से गूँज उठा। करतार ने अनाज के व्यापार का पुश्तैनी काम सँभाल लिया। उसका समय गल्ले से घर और घर से गल्ले तक में सिमटता जा रहा था। दुकान पर दिन भर हिसाब-किताब, मंडी में खरीदी, खेतों में नाप-जोख – ये अब उसकी दिनचर्या थी। पर दिल में अब भी कलकत्ता था। जब भी दशहरा आता या बारिश की बूँदें ज़मीन को चूमतीं, करतार यादों के रास्ते से कलकत्ता चला जाता। उसके भीतर वो बांगलार छेले (बंगाली बालक) अब भी ज़िंदा था जिसका संसार वहाँ की गलियों में सिमटा हुआ था।
उम्र के तकाजे के साथ अब जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं और शारीरिक क्षमता कम। बच्चे बड़े हो रहे थे। बूढ़े दारजी का अब कलकत्ते आना-जाना कम हो गया। बीबी रहीं, बीबी का अपनत्व बना रहा। जीजा जी के गुजरने के बाद बहुत जिद की करतार ने बीबी को घर लाने की। पर वो भी एकदम ढीठ ठहरी। “जे मैं चली गई, तां ए ढाक दी आवाज़ फेर किठों सुनांगी? ए पूजो दा जश्न, ओ खुशबू, ओ रौनक, ए सब तां उठे नहीं मिलेगी। न ए मिष्टी बोली मिलूगी, न रविंदर बाबू दा गीत। लाहौर चाहे किन्ना वी वधिया हो जावे, पर ओह कलकत्ते जैसा नहीं हो सकदा।” करतार बहन को जानते थे। उनकी जिद्द को पहचानते थे। फिर भी कोशिश करते हर साल बीबी के लिए तीज का ‘संधारा’ (सावन महीने में भाइयों द्वारा बहनों के लिए ले जाने वाली मिठाइयां, कपड़े और शृंगार की सामग्री) ले कर जाएँ। रक्षाबंधन के दिन राखी बँधवाते ही जैसे उनका बचपन लौट आता और इठलाते फिरते।
साल-दर-साल सियासी और मजहबी हालात बिगड़ रहे थे। साझी संस्कृति और विरासत सँभालने वाले दारजी ने कभी हिन्दू-सिख-मुसलमान, हिन्दी-पंजाबी-बंगाली का भेद नहीं समझा।
“सानु की?” “सब रब दे बंदे हैं।” दारजी कहते और आगे बढ़ जाते।
सावन का महीना चल रहा था। पंजाब की हवाओं में हरियाली की सुगंध थी, पर करतार के मन में कोई उमंग नहीं थी। बीबी का ख़त आया था।
“काके, सावन की रुत तो हर बार खुशियाँ लेकर आती थी… पर इस वारी न फुहार पसंद आती है, न मन रिझ रहा है। शरीर भी थक गया है। पर राखी तेरे बिना अधूरी है… इक वारी आजा।”
दारजी ने ख़त को सीने से लगाया। घर वालों को बताया था, “मैं थोड़े दिनां लई कलकत्ते जा रहा हूँ, बीबी नूं इस वक़्त मेरी ज़रूरत है।”
कलकत्ता जाकर बुढ़ापे में भी दारजी का बचपन लौट आया। उधर बीबी की तबीयत अब बिगड़ रही थी। राखी के दिन उनका चेहरा अलग ही दमक रहा था। उन्होंने दारजी को पास बिठाया, एक फूलों की डलिया में से ख़ुद बनाई राखी निकाली, और बोलीं – “काके, हो सकदा है ए राखी मेरी आख़री होवे… पर ऐधे विच मैं तेरे लई उम्र भर दा प्यार, आशीर्वाद ते सौ सालां दी दुआ बाँध रही हां। जदो वी ए राखी वेखीं, समझीं कि ये बेबे की ममता से रची उस बहन की आख़िरी प्रार्थना है।”
राखी बाँधते वक़्त उनकी उंगलियाँ काँप रही थीं, पर चेहरे पर एक संतुष्टि थी।
सावन की उमस भरी दोपहर थी। बादल तो थे, पर बारिश नहीं। हवा में कोई अजीब-सी बेचैनी थी बाहर की फ़िजा कुछ और ही कह रही थी। “विभाजन,” “हिंदुस्तान-पाकिस्तान,” और “डायरेक्ट एक्शन” की फुसफुसाहट अदृश्य धूल की तरह हवा में तैर रही थी। सड़कें वीरान थीं। एक सन्नाटा पसरा था, और फैली थी उस सन्नाटे में मौत की आहट।
तारीख आई, 14 अगस्त 1946।
शहर जैसे बारूद पर बैठा था। बाहर से जुलूसों की आवाज़ें आ रही थीं।
“लड़ के लेंगे पाकिस्तान!”
बीबी उस वक्त रसोई में थीं। उनके हाथ काँप रहे थे – फिर भी अपने ‘काके’ के लिए वही खीर बनाना चाहती थीं जो उसे बचपन से पसंद थी। बायीं आँख की कोर से पसीना बह रहा था, लेकिन माथे का टीका अभी भी चटक था। गली के बाहर से भीड़ की आवाज़ अब और करीब आ चुकी थी। दारजी बाहर से दरवाज़ा बंद कर आया, ताकि उन्मादी नारे भीतर तक ना पहुँचे। बीबी ने मुस्कराकर कहा, “काके, असीं कदे किसे नूं दुख दिता है? साडे हथ विच तां सिर्फ़ दुआवा ने। डर ना… ओह उपरवाली दुर्गा माँ हर सच्च ते झूठ दा हिसाब रखदी है। जे आज चुप है, तां कल जरूर बोलूगी।”
तभी दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई। “ओइ तो शिख!”
दारजी ने दोनों हाथों से कुंडी को कसकर थाम लिया पर भीतर ही भीतर उनका शरीर थरथरा रहा था। शब्द गले में अटक रहे थे। होंठों से बस यही निकला: “आमरा किछु कोरी ना, भाई।”
तभी दरवाज़े के उस पार से एक और आवाज़ आई “एई शिखेर बाड़ीर दर्जा खुले दाओ। तार घर पुड़िए दाओ।” (इस सिख के घर का दरवाज़ा खोल दो। उसका घर जला दो।)
कुंडी पर पहले एक लात पड़ी, फिर दूसरी, और फिर धड़-धड़-धड़। अंदर तक घर की दीवारें काँप उठीं।
किसी ने लोहे की रॉड से कुंडी को तोड़ फेंका। एक भयानक आवाज़ के साथ दरवाज़ा झूल गया।
चार-पाँच नकाबपोश युवक दरवाज़ा तोड़कर भीतर घुस आए। चेहरों पर नफ़रत और वहशत थी। एक के हाथ में लोहे की सरिया, दूसरे के हाथ में लकड़ी का बल्ला, तीसरे के पास पेट्रोल की छोटी बोतल और चौथे ने अपनी शर्ट के भीतर छुरा छुपा रखा था।
दारजी दोनों के जीवन-दान की भीख मांगते हुए हाथ जोड़ने लगे।
“भाई, आमार बोन खुब बीमार। आमरा कौनो धर्मेर बिरुद्धे नाई… आमरा शुधु मानुष…” (भाई, मेरी बहन बहुत बीमार है। हम किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं हैं… हम बस इंसान हैं…)
आखिर हैवानों से मानवता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। उन आँखों में केवल घृणा, उन्माद, और ख़ून की प्यास थी। सरिये और बल्ले से वृद्ध दारजी को मारते हुए बोले, “हारामजादा, पाकिस्तान गठनेर आगेई तोमाके जबाबदिही करते हबे।” (पाकिस्तान बनने से पहले ही तुम्हें जवाब देना होगा।)
बहन भाई की रक्षा के लिए चीखीं।
उधर से आवाज आई, “आरे शिख? तुमि एखनाओ बेचे आछो केनो?” (अरे सिखनी? तुम अब तक ज़िंदा कैसे हो?)
किसी ने आँगन की दीवार से टूटे ईंट का टुकड़ा उठाया और पीछे से पूरा बल लगाकर बीबी की ओर फेंका।
धड़ाम!
ईंट सीधा बीबी के माथे पर लगी। उनकी चीख़ हवा में गूंजकर किचन की दीवारों से टकराई। हाथ से खीर की कटोरी छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी। बीबी फर्श पर पड़ी थीं, शरीर शिथिल था, आँखें अधखुली, और होंठ फड़फड़ा रहे थे। गरम सफ़ेद खीर के बीच ख़ून की सुर्ख़ धार बह रही थी।
दारजी भाग कर बीबी के पास पहुँचे, उनका सिर अपनी गोद में रखा। अपने अंगोछे से उनके घाव दबा रहे थे लेकिन ख़ून थम नहीं रहा था। बीबी का चेहरा अब हल्के नीलेपन में बदल रहा था। पर उनकी आँखें सिर्फ़ एक चीज़ तलाश रही थीं, भाई की कलाई। उनकी आवाज़ अब फुसफुसाहट थी, “काके… राखी… आपणा ख़्याल रखणा…”
बीबी की आँखें धीरे-धीरे बंद होती गईं। फिर उनका शरीर जैसे ख़ुद को छोड़ता चला गया और उनके हाथ से फुलकारी ढलक कर ज़मीन पर गिर गई।
सारा शहर जल रहा था। और दारजी के हाथ में थी बस एक फुलकारी – जिसमें शायद वो पहली थपकी, वो बैसाखी, वो माँ जैसी ममता अब भी टँकी थी।
बरामदे में धूप फैल रही थी। खामोशी में दीवार पर टँगी घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी। जोगिंदर को अब उस ‘गंदी सी फुलकारी’ का मर्म समझ आ चुका था। उसे दारजी की चुप्पी में कलकत्ता की भयावह त्रासदी महसूस हो रही थी। फुलकारी को गोदी में लिए वह करुण चीत्कार भर रहा था। दारजी की आत्मा रो रही थी, पर आँखें स्थिर थीं। मानो बहुत सारे सवाल हो पर उत्तर देने वाला इस दुनिया से जा चुका हो।
वक्त बदल रहा था। जज़्बात बदल रहे थे। मजहबी हालात बदल रहे थे। कमोबेश सबको खबर हो चुकी थी की लाहौर अब अपना वतन ना रहा। अंदरूनी मुल्क से नए बाशिंदे आने शुरू हो चुके थे। गली-मुहल्लों में भाईचारे की जगह शक भारी नजरें कदम ताल कर रही थीं।
दीवारों पर नए पोस्टर थे,
“बंटवारा तय है!”
“सरदार अब मुसलमान इलाकों में नहीं रह सकते।”
पर इह तां साडा लाहौर सी – दारजी का जन्मस्थान। यही उनके पुरखों की मिट्टी थी, घर-परिवार, गली-मुहल्ला, बरसों की यादों का पिटारा था।
अब यहाँ से भी लोग पलायन करने लगे थे। लाउडस्पीकर से नफरती आवाजें आने लगी थीं। एक परिवार को कलकत्ता में खोने के बाद दारजी अब यहाँ कुछ खोना नहीं चाहते थे। रहीम चाचा को घर की चाभी पकड़ा कर रात के अंधेरे में सब लाहौर स्टेशन पहुँचे थे। लुधियाना जाने वाली ट्रेन रात को रवाना हुई। डब्बे के भीतर हवा नहीं, घुटन थी। सबकी वेदना थी, पीड़ा थी, चीत्कार था। दारजी ने खिड़की से बाहर देखा – छूटते घर, जलते मोहल्ले, और रोती हुई बिसरी यादें।
दारजी की आँखें गीली थीं। वो कभी राखी को निहारते, कभी छूटते शहर को।
मन में शब्द गूँजने लगे – धीरे-धीरे, जैसे अंतरात्मा से आवाज आ रही हो:
“क्या मज़हब इतना गहरा होता है कि उसमें इंसानियत ही डूब जाए? सरहद तो नक्शों पर बनी थी, लेकिन ज़िंदगी तो परस्पर रिश्तों की थी। अदृश्य, किन्तु अमिट। अब शायद इस जगह आना संभव न हो। खैर! यादों की कोई ज़मीन नहीं होतीं, वो कल्पना की उड़ान से सरहद लांघ सकती हैं। वो तो ये नहीं देखतीं कि सामने हिन्दुस्तान है या पाकिस्तान।”
मजहब और मुल्क से परे एक वेदना लिए सभी रिफ़्यूजी कैम्प पहुँचे। दारजी सब खो चुके थे, सिवाय सीने से लगी उस फुलकारी के। अब उस फुलकारी में ही उनका पूरा जीवन था।

© त्र्यम्बक श्रीवास्तव
05 जुलाई 2025
डलास, टेक्सास, संयुक्त राज्य अमेरिका
अस्वीकरण:
यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। इस कहानी का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि विभाजन जैसी त्रासदी से उपजे मानवीय दर्द और स्मृतियों को रेखांकित करना है।
लेखक अभिषेक अवतंस जी के बहुमूल्य सुझावों के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता है।
साथ ही इस कहानी के संवाद और शैली के लिए अनेक मित्रों के परामर्श के लिए आभार।