“एक पईसा की लाई, बाजार में छितराई, बरखा उधरे भिलाई।” बचपन से मानसून का सामना इन्हीं पंक्तियों के स्वतः उच्चारण के साथ होता था। मौसम की पहली बारिश के साथ ही धरिणी की शुष्क तपिश शांत होती है और एक नया चक्र प्रारंभ होता है; तापमान में कमी एवं बारिश का। बारिश जो यदा-कदा मूसलाधार गर्जन के साथ दस्तक देती है। एक अन्य साधारण सा किंतु मनभावन पहलू जुड़ा रहता है मानसून के साथ, वह है मां के हाथ के बने पकोड़े का। अहा! मौसम के आरोह की तुलना किंचित जीवों एवं उनमें निहित जीवन से की जा सकती है। कहने को तो भारतवर्ष में 4 (अथवा 6, इसमें मतभेद है) ऋतुएँ हैं, किंतु वर्षा ऋतु को इन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वर्षा रानी, सावन, सीजन ऑफ लव इत्यादि नाना प्रकार के विशेषणों से सुशोभित मानसून की हर बात निराली है। यह वह अवसर होता है जब गर्मी और धूप से अलसाई धरती का श्रृंगार करने धरती पर मेघ उतर आते हैं। ऐसा लगता है मानो सारे जीव, जलचर, पादप एवं कीट इसी की राह ताक रहे थे।
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“मेघ आए बड़े बन ठन के संवर के, आगे आगे नाचती गाती बयार चली, दरवाजे खिड़कियां खुलने लगे गली-गली।” सच! प्राकृतिक उपादानों का ऐसा सजीव रूप और भला किसी अन्य ऋतु में कैसे हो सकता है? मानसून में निहित अन्य कारकों का बखूबी चित्रण उपरोक्त पंक्तियों में लक्षित होता है। यही तो जीवन है। यही वह शानदार ऋतु है जिसमें ना सिर्फ कल्पनाशील कविओं अपितु एक साधारण से मस्तिष्क में स्वतंत्र सोच के बीज को विकसित करने की क्षमता है। जीवन जब नीरसता से सराबोर होता जान पड़ता है तो उसमें प्राण फूंकने के लिए नूतनता अपरिहार्य होती है। कदाचित इसी प्रकार से गर्मी की शुष्क मार एवं लू के चपेटों से राहत दिलाने हेतु प्राकृतिक निदान के रूप में आगमन होता है, वर्षा रानी का। पशु पक्षी अकुलाये से होते हैं, खेत खलिहान पानी के अभाव में निष्प्राण हो रहे होते हैं तत्पश्चात जीवन में नूतन उल्लास एवं उमंग की संचार हेतु मानसून पधारता है। नदी-नाले, तालाब, झील-झरने सब पुनः जल का रसास्वादन करने के उपरांत अपने अंतर्मन को तृप्त करते हैं। यही संतृप्ति आगत कालीन शीत एवं शुष्क समय में अपने अंतर के नीर से जीवन को बोने का कार्य करती है। अपने आप। अनायास। अप्रयास। ग्रामीण जीवन में मौसम की छटा ही निराली होती है। समूचे खेत खलिहान जलाशय अपनी आवश्यकता हेतु जलापुर्ति करते हैं। मवेशियों एवं स्थानीय पादपों के लिए यह संजीवनी बूटी का कार्य करती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कल्पना शक्ति से प्रकृति प्रदत्त मानसून का मानवीकरण बहुत ही सुगम्य जान पड़ता है। उन्हीं के शब्दों में “पाहुन ज्यों आए हों गांव में शहर के, मेघ आए बड़े बन ठन के संवर के।” भारतीय संस्कृति में पाहून को मेजबान की तरफ से देव तुल्य स्थान प्राप्त है। ऐसे में मानसून के आगमन की कल्पना घर में मेहमानों से की जाना हमारे समाज में इसके महत्ता की पराकाष्ठा का द्योतक है। वैसे तो मौसम का आना-जाना प्रकृति प्रदत्त नियम है। तथापि बाल सुलभ चंचलता लिए हुए बारिश का आकस्मिक आगमन दिल की भाव भूमि को गुदगुदाने वाला आभास दिलाता है। एक अबोध बालक की प्रथम किलकारियों से जो उल्लास माता पिता में नए जीवन का स्राव करता है, कुछ वैसी ही खुशी समूची धरा करती है मौसम की पहली बारिश के साथ। अपने यौवन के उद्भव के साथ-साथ मानसून में रोमानियत एवं पौरुष सौष्ठव का प्रादुर्भाव प्रारम्भ होता है। इसी मौसम की बारिश में वातावरण साफ हो जाता है भेदभाव की दीवारें खंडित हो जाती हैं तथा लोग आपसी एवं परस्पर प्रेम की बुनियाद को सींचते हैं। “ऊंच-नीच में हटी कियारी, जो उपजी सो भई हमारी।” यौवन काल के साथ ही प्रौढ़ अवस्था पनपती है। अनुभव एवं जरूरत की आपूर्ति हेतु समरसता से धरती जनों को धन्य करते हुए। वृद्ध काल के साथ-साथ मानसून के गर्जन एवं झमाझम बारिश का भी अवसान होता है। उम्र की अवस्था के साथ मानवीय उमंगो एवं अवधारणाओं को भी बारिश नैसर्गिक रूप से परिभाषित करती है। उत्साह के क्षणों में हल्की बारिश तो आक्रोश का आधार बनती बादलों के गर्जन से सराबोर मूसलाधार वृष्टि। हल्की बूंदाबांदी से लेकर दिनों तक चलने वाला मानसून प्रकृति के दीर्घतम महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिंब है। मानसून के सहारे प्रकृति अपना मानवीकरण कर नवजीवन ही तो धारण करती है जो इसे जीवन की उपमा एवं सहज रूपक बनाते हैं।
बरसो रे मेघा मेघा बरसो…
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