कुछ दिनों पहले अली सरदार जाफरी साहब द्वारा रचित पुस्तक कबीर अमृत वाणी पढ़ने का सुअवसर मिला। काफी अच्छा लगा। एक बात गौर करने वाली मैंने देखी इसमें जो परमात्मा के स्वरूपों की व्याख्या कर रही थी। पुराने समय से ही हमारा समाज आत्मा और परमात्मा के स्वरूपों की व्याख्या के जंजाल में फँसा है। नहीं, ऐसा कदापि नहीं है कि मैं इसकी अलग परिभाषा तय करने जा रहा हूँ। वस्तुतः हम आत्मा और परमात्मा के गूढ़ अर्थों को न ही समझ सकते ना परिभाषित करने कि क्षमता रखते हैं। हम इसमें सिर्फ अपने सिद्धांत दे सकते हैं। इसी के अंतर्गत दो प्रकार कि थ्योरी चली आ रही हैं। अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैतवाद की। कहना मुश्किल है कि किसके मतानुयायी कितने है अथवा कौन सी थ्योरी सही परिभाषित करती है इन रूपों को। ग्रन्थ कहते हैं कि आदि गुरु शंकराचार्य ने अद्वैतवाद को बढ़ावा दिया जिसके अनुसार, आत्मा परमात्मा का ही रूप है, तथा उससे अलग नहीं हो सकती है। दोनों एक दूसरे में सन्निहित हैं। परम ब्रह्म ने मानवीय सत्ता सुख भोगने के लिए आत्मा की उत्पत्ति की। आदि गुरु ने इसी को अद्वैतवाद का नाम दिया। जहाँ दोनों एक हो जाते हैं, आत्मा और परमात्मा एक दूसरे में इंटेग्रेटेड हैं, अद्वैत, यानी दूसरा नहीं। दोनों एक दूसरे में समाहित हैं। इस सिद्धांत की मूल बात यह थी कि इसने व्यक्ति अर्थात आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को अस्वीकर किया। इसी से अलग हटकर आते हैं, रामानंद जी। स्मरण करने से याद आ रहा है कि शायद ये वही हैं जिन्होंने कबीर को शिक्षा दी थी अथवा कबीर ने इन्हें अपना गुरु मान लिया था। सच्चाई तो यह है कि कबीर जैसा शख्स किसी गुरु द्वारा प्रदत ज्ञान को नहीं बाँटता। समाज और देशकाल में घुम्मकड़ी से उपजी है कबीर की रचनावली। पंचमेल खिचड़ी वाली भाषा ने समाज के मुलभुत सन्निहित यथार्थ का जो सुन्दर अवलोकन और प्रहार किया किया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। ओह सॉरी! माफ़ कीजियेगा मै शायद भटक सा गया था। तो हाँ रामानंद जी ने प्रकारांतर से चली आ रही इस सिद्धांत को ललकारने कि कोशिश कि जिसमे आत्मा और परमात्मा के सह-अस्तित्व कि बात कही गई थी। इन्होने इसे थोड़ा मोडिफाई करते हुए बताया कि आत्मा और परमात्मा एक दूसरे के रूप तो अवश्य हैं मगर, सह सबंध की भावना के साथ। ये एक दूसरे के साथ निरंतर गतिमान हैं। इसी सदर्भ में एक नया टर्म आता है ‘माया’।
शंकराचार्य के सिद्धांत में जहाँ इस माया के अस्तित्व को दरकिनार कर दिया गया था वही रामानंद जी ने इसको भरपूर स्थान दिया। उनका मानना है कि सारा खेल माया का ही है। स्थितियां कुछ ऐसी हो जाती हैं, आत्मा परमात्मा का रूप है मगर उससे अलग जन्म लेकर मानवीय रूप में सगुण और साकार होकर मुखर होता है। माया मोह एक बन्धनं का नाम है, आपसी मानवीय सबंध इस के द्वारा ही तैयार किये जाते है। अणु और परमाणु के मध्य लगने वाले बांड की तरह मानवों के सह-सबंध इसी से परिभाषित होते हैं। अतः इस सिद्धांत को अंततः ज्यादा मान्यता मिलती है जहाँ परमात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व के साथ में ही आत्मा और माया कि अलग ऑटोनोमस सत्ता स्थापित होती है। यही है विशिष्टाद्वैत का दर्शन मेरी मेरी नज़रों में।
धैर्य बनाकर पढ़ने के लिए शुक्रिया। सही ग़लत की पहचान मुझे नहीं है मुझे। अतः आपके ईमानदार कमेंट्स का इंतजार करूँगा…
साभार.
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