अध्याय 01: विद्यालय छात्र जीवन
08 जुलाई 2003. दिन मंगलवार.
जवाहर नवोदय विद्यालय, सिवान के नीलगिरी सदन का अहाता. ग्यारह साल का हो गया हूँ. आज से मैं यहीं रहने वाला हूँ. मम्मी रोये जा रही हैं और मैं उनको देख रहा हूँ. इससे पहले घर में दादी और आंटी ने अश्रु पूरित नयनों से विदा किया था. पिताजी बाहर से मजबूत हैं और वो सबको सहारा दे रहे हैं. और इन सबको सहारा दे रहे हैं हमारे हिंदी शिक्षक, महोदय जी. समय के बहाव के बावजूद कुछ लफ़्ज याद रह जाते हैं. उनमें से एक महोदय जी का मम्मी को सांत्वना देते हुए यह कहना “अरे बिलकुल मत रोइए. अब से इसका यही घर है. बिना मूंछ-दाढ़ी वाला दे रही हैं, मूंछ-दाढ़ी के साथ हम आपको वापस देंगे.” उस समय नहीं अहसास था लेकिन मैंने अपनी पहली शेविंग बारहवीं कक्षा के अंतिम बोर्ड परीक्षा के दिन की. शुरुआत की मार्मिकता के बहाव में मत आइये. आने वाला जीवन बड़ा मजेदार था. इतना मजेदार की तसल्ली से इसपर एक ग्रंथावली लिखी जा सकती है.
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हालाँकि मैं इससे पहले भी दस वर्ष की आयु में तीन महीने के लिए हॉस्टल में रह चुका था, किन्तु यहाँ आगे सात साल गुजारने थे. पहली रात डरावनी थी. नई जगह का खौफ, टिन शेड के कमरे जिसमें चौबीस बच्चे एक साथ रहते थे, बंक बेड्स, मेस का खाना, और घर के सपने घेरे थे. ये सब कुछ दिनों की ही बात थी. फिर नए दोस्त बने. और क्या खूब दोस्ती हुई जो आज इक्कीस साल बाद भी बरक़रार है. मेस जाने का हमारा अलग टशन होता था। थाली उँगलियों पर नचाते जाते थे, उसी में खाना, उसी में मुँह लगा कर पानी पीना, और फिर अगले को वही थाली पास करना होता था। खाने का इतना शौक था की शुक्रवार को अंडा-करी खाने में रोटियों की बाजी लगती थी। आठवीं कक्षा में एक बार चैलेंज था की सरकार को घाटा लगा देना है खाने में। हमने 10 रोटियाँ खाई। यह रिकॉर्ड आज भी नहीं टूट पाया है। हमारे रूटीन में क्लास अटेंड करना, हर महीने यूनिट टेस्ट देना, और अँधेरा होने तक क्रिकेट खेलना था. यह शायद नवोदय की ही ट्रेनिंग थी कि आज हम कहीं भी एडजस्ट कर जाते हैं.
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पहली बार बंक बेड्स पर सोये थे. गर्मी और उमस के मौसम ने अलग कहर ढाया था. लाइट नहीं होती थी. रात ग्यारह बजे तक सरकारी जेनरेटर चलता था. उसके बाद भगवान भरोसे. हालाँकि ऊपर वाले बेड्स पर पंखे की हवा तो आती थी मगर बारिश के दौरान टिन शेड के जॉइंट्स से पानी टपका करता था. हमने जुगाड़ लगाया और छत में लीकेज वाली जगह पे साबुन (जो हमें सरकार की तरफ से मिलता था) से प्लास्टर किया. अब सादे पानी की जगह खुशबूदार झाग वाला पानी गिरने लगा. हम भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं थे. छत में अपनी प्लास्टिक की बाल्टी को लटका दिया. टप्प-टप्प की आवाज के बीच हम सो गए. बाल्टी ने पानी रोकने के लिए अपनी क्षमता का पुरजोर इस्तेमाल किया लेकिन पंछी, नदियाँ, पवन के झोंके के अलावा सावन की झड़ी को कोई रोक सकते हैं क्या? हैंडल ने बाल्टी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया. मध्यरात्रि में पानी से भरी बाल्टी हमारे बेड से होते हुए चारों तरफ जलमग्न कर गई. अँधेरी रात में अधजगे हम कुछ टटोलते-मचलते भींगे गद्दे पर दुबारा पसर गए. नींद भी क्या खूब आती थी. फिर सुबह-सुबह पी.ई.टी. सर सीटी मारते हुए जगाते थे और आधी नींद में हम मॉर्निंग असेंबली और एक्सरसाइज के लिए भागते. ऐसे ही भागते-भागते सात साल और सैकड़ों यादों के साथ हम नवोदय से विदा हो लिए. छात्र जीवन की इकलौती ऐसी जगह जहाँ आये तो भी रोये और निकले तो भी रोते हुए. हम निकल गए बस हमसे नवोदय नहीं निकला.
“हम स्वराज की ऋचा नवल, भारत की नवलय हों, नव सूर्योदय, नव चंद्रोदय, हमीं नवोदय हों”.
"मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
— Tryambak Srivastava, PhD (@imtryam) February 27, 2022
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ." pic.twitter.com/pxu7W4P6TU
अध्याय 02: कॉलेज छात्र जीवन
यहाँ से निकले तो रीजनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन, भुवनेश्वर जा पहुंचे. यह जगह शुरू में पसंद नहीं थी क्योंकि पिताजी दिल्ली विश्वविद्यालय से नामांकन कटा कर ले आये थे. लेकिन होमी भाभा छात्रावास के होमीज़ के साथ कब मन रम गया पता ही नहीं चला. यहाँ जवानी की दहलीज पर कदम रखा, अच्छे और जहीन दोस्त बनाये (जो अब भी साथ हैं), खूब खाया-पिया, ओड़िशा को जाना, और आने वाले करियर की आधारशिला रखी. यहाँ हॉस्टल के गुसलखाने में पानी सुबह 8 बजे तक आता था जो कि हमारी चिर निद्रा का समय होता था. ऐसे में अक्सर हमारा सहारा बनती अहाते में बनी बड़ी सी पानी की टंकी, जहाँ सभी इकट्ठे नहाते थे. हम अक्सर कॉमन रूम या मेस में पाए जाते. मेस का खाना अच्छा हो सकता है, इसका इल्म हमें यहाँ हुआ. कौन किसकी थाली में खा रहा है, कब खा रहा है, और किस वेषभूषा में खा रहा है, हम इससे परे उठ चुके थे. यहाँ साबुन-तौलिये, जूते-कपड़े, थाली-खाना, किताब-कॉपी किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं हो सकती थी. जो भी है उस पर सबका हक है. समाजवाद का इससे अनूठा उदाहरण और क्या हो सकता है?
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देश के लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए हमारे कॉलेज ने बहुत बड़ा योगदान दिया. प्रति छात्र यहाँ लगभग तीन गुनी ज्यादा आबादी छात्राओं की थी. यहाँ बॉयज हॉस्टल में दो गैंग्स थे. एक गैंग कॉलेज कैंपस से लेकर हॉस्टल छत तक कन्याओं की छत्रछाया में खिला रहता था. सिम कम्पनियाँ नाइट पैक ऑफर करती थीं जिनकी कृपा से यह गैंग रात के ग्यारह बजे के बाद जागृत होता था. दूसरा गैंग था सख्त लौंडों का. इनका काम मुख्यतः टीवी रूम से हॉस्टल रूम में ग्रुप में मूवीज देखने का, खेल-कूद करने का, या सामाजिकता निभाने का. दोनों गैंग एक दूसरे को बहुत गरियाते थे. मगर कौन कब पलटी मार कर दूसरे ग्रुप में शामिल हो जाये पता ही नहीं चलता था. इन्हीं यादों और अनगिनत दोस्तों की कहानियों के साथ हमने चार खूबसूरत साल यहाँ काट लिया.
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अध्याय 03: यूनिवर्सिटी छात्र जीवन
अगला पड़ाव दिल्ली था जहाँ चाणक्यापुरी के अकबर भवन में हमारी यूनिवर्सिटी अवस्थित थी. मैंने आखिरी दिन एडमिशन लिया और दो-चार घंटे में जॉइनिंग, ऑनबोर्डिंग, और हॉस्टल अलॉटमेंट, सब कुछ हो गया. सरकारी सिस्टम के धक्के खाने के बाद यह अच्छा अनुभव था. यूनिवर्सिटी क्या थी जनाब एक बड़ी सी बिल्डिंग. भूतल से आठवीं मंजिल तक क्लासेज, ऑफिस, और हॉस्टल. बिल्डिंग में बैंक, एटीएम, मेस, कैंटीन, हेल्थ सेण्टर, सिक्योरिटी, सब कुछ मौजूद. इस अंतर्राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में पूर्ववर्ती अकबर होटल के आलीशान कमरे थे, जिसे हॉस्टल में तब्दील कर दिया गया था. हमें विदेशी रूममेट्स के साथ रहना था. धीरे-धीरे इंटरनेशनल कम्युनिटी में अपनी दोस्ती होने लगी. आने वाले दो सालो में यहाँ जिंदगी के मजे थे. 9 बजे की क्लास के लिए 8:50 में उठना, तैयार होकर बस लिफ्ट से नीचे आ जाना होता था. एक्सपेरिमेंट्स में आधे घंटे का ब्रेक है तो स्नैक्स या नैप के लिए निकल पड़े. डिनर के बाद चाणक्यापुरी के एम्बेसी वाले पॉश इलाके में नाइट वॉक, यशवंत प्लेस का मार्किट, नेहरू पार्क के चक्कर, इत्यादि बहुत यादगार लम्हों में से हैं. अब यूनिवर्सिटी नए कैंपस में चली गई है. उम्मीद करता हूँ कि वो विविधता और खुलापन बरक़रार रहे.
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अध्याय 04: पेशेवर छात्र जीवन
एम्स में पीएचडी में हॉस्टल बहुत लेट मिलता है. हम लकी रहे जो हमें नई हॉस्टल बिल्डिंग ही मिल गई. और भईया, आप आईआईटी, आईआईएम, आईआईएससी, आइजर, इत्यादि किसी भी उच्च शिक्षण संस्थान में चले जाओ, एम्स दिल्ली के हॉस्टल के आगे सब फीके हैं. पीरियड! आप सोचेंगे ऐसा क्या है वहाँ के हॉस्टल में तो यह मैं यह लिख कर नहीं बता सकता हूँ. यहाँ अपनी कल्पना से उत्पन्न सारे वैध कार्य करने को आप स्वतंत्र हैं. सुरक्षित कैंपस, समय की कोई बाध्यता नहीं, एक उम्दा प्रोफेशनल नेटवर्क, और अच्छे दोस्त. कोई प्लंबिंग की समस्या हो, इलेक्ट्रिसिटी इशू हो, या नार्मल कारपेंटरी, हर एक समस्या का तत्काल निवारण है. हॉस्टल लाइफ का सबसे बड़ा खौफ है, खाना. यहाँ अनेकों मेस हैं जो व्हाट्सएप मैसेज के साथ खाना डिलीवर करते हैं, इसके अलावा आस-पास के प्राइवेट जॉइंट्स, ऑनलाइन फूड डिलीवरी की सुविधा. और अगर फिर भी आपको इच्छा है तो आप अपना खाना खुद बना सकते हैं. हमने यहाँ अनेकों पार्टियाँ की. लिट्टी-चोखा, पूरी-सब्जी, तंदूरी चिकन से लेकर हांडी मटन तक बनाया. कैंपस में जिम, स्विमिंग पूल, टेनिस कोर्ट, इंडोर स्टेडियम, फुटबॉल/बास्केटबॉल ग्राउंड, इत्यादि सभी सुविधाएं उपलब्ध है. कोविड-19 के दौरान जब बहुत सारी भौतिक सुविधाएं अनुपलब्ध थीं तब एम्स के बैडमिंटन कोर्ट ने हमें सहारा दिया. यहाँ खूब खेले, दोस्त बनाये, और कोविड काल में शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त रहे. एम्स में एक सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है घर-परिवार-समाज के लोगों का इलाज कराना जिसमें हॉस्टल ने काफी मदद की. वाकये काफी हैं, मगर, समय कम. वो कहानियाँ फिर कभी. एम्स और यहाँ के जीवन को साधुवाद समर्पित करता हूँ, जहाँ आर्थिक सशक्तता, जीवन को स्थायित्व, और करियर को दिशा मिली.
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बिना अतिशयोक्ति के कह रहा हूँ की मुझे अक्सर अपने स्कूल/कॉलेज के सपने आते हैं. यह व्यक्तिगत रूप से मेरे पारिवारिक जीवन से ज्यादा जुड़े हैं जो यादें बनकर अक्सर प्रतिबिंबित हो जाते हैं… इस दौरान साझे सपने लिए अनेकों हमसफ़र मिले, बने, बिछड़े. मगर यह यात्रा अनवरत चलती रही.
ये हॉस्टल लाइफ ख़त्म होने को थी. अब दुबारा शायद संभव ना हो. इन सारी यादों को समेटना मुश्किल था.
सात साल का एम्स छूट रहा था. दस साल की दिल्ली छूट रही थी. बीस साल की हॉस्टल लाइफ छूट रही थी. अठाईस साल का छात्र जीवन छूट रहा था. बत्तीस साल का स्वदेश छूट रहा था.
अपने छूट रहे थे. सशंकित भाव घेरे थे. मन द्रवित था. लेकिन सबको भींगे नयनों की आखिरी निशानी के साथ विदा नहीं करना चाहता था. अलविदा कहना बड़ा मुश्किल कार्य है. विदाई के ज़ख्मों पर पुनर्मिलन के आश्वासन की मरहमपट्टी करके अंतिम प्रस्थान किया.
“ऐ वतन वतन मेरे आबाद रहे तू
— Tryambak Srivastava, PhD (@imtryam) January 9, 2025
मैं जहाँ रहूँ जहाँ में याद रहे तू” 🇮🇳 pic.twitter.com/CqD3oW8na4
नई जगह की नई दास्ताँ होगी. नए सफ़र में नए हमसफ़र मिलेंगे.
अन्तः अस्ति प्रारंभ:
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